6 जनवरी 2018

यादें

यादों की दोछत्ती से मैं
बचपन की संदूक उठा लाया
उस बक्से में यह रखा है
कुछ स्वेटर, कुछ मोजे
कुछ फुँदने वाले टोपे
उसमें थोड़े से गुल्लक हैं
जिनमे छोटे से सपने हैं
कुछ सिक्के हैं कुछ चिटठे हैं
उन चिट्ठों में तकरीरें हैं
उन शब्दोँ के भोलेपन को मैं
निज अंतर्मन में ढो लाया
यादों की दोछत्ती से मैं
बचपन की संदूक उठा लाया

एक गुड़िया है एक पुड़िया है
जिसमें गुड़ की रसभरियाँ है
इमली के सूखे बीज भी है
कुछ पत्थर वाली गोटे है
एक लट्टू है, एक पट्टी है
पट्टी में चित्र उकेरें हैं
इन चित्रोँ के रंगों का संगम
निज अन्तरघट में भर लाया
यादों की दोछत्ती से मैं
बचपन की संदूक उठा लाया

31 जनवरी 2017

रुको !!

रुको
मत जाना फेर कर मुँह अपना
अभी बहुत कुछ कहना है

क्यों आसमाँ पे टाँके तारे
धरती पे फूल इतने सारे
क्यों इंद्रा धनुष में रंग डाले
वीणा के स्वर में झंकारें

रुको
मत उठाना सर से ओढ़नी अपनी
अभी कुछ और पहर रहना है

क्यों सुरमई रात के पहरे
चाँद चांदनी को बिखेरे
क्यों रेशमी सुबह सुनहरे
आसमान में रँग उकेरे

रुको
मत सजाना आँख में काजल
अश्रुओं को बहना है

रुको
मत जाना फेर कर मुँह अपना
अभी बहुत कुछ कहना है
रुको...

चाहता हूँ......

ख़त लिखूं या गीत शब्दों को पिरोकर
काग़ज़ में तहँ लगाना चाहता हूँ

बंद दरवाजों की चौखट पर ठहर कर
बेसबब आवाज़ लगाना चाहता हूँ

आँख के खुलने का सदमा इस क़दर है
और कुछ सपने छुपाना चाहता हूँ

कोई समझे या ना समझे दर्द अपना
गीत ऐसे गुनगुनाना चाहता हूँ

क़तरे क़तरे को सुराही में जमा कर
जाम कुछ नायाब बनाना चाहता हूँ 


20 जून 2016

क्या होगा.....

थी बहारें बाग़ में गुलशन बड़ा मग़रूर था
शाख से टूटा हूँ मुझको सींचने से क्या होगा

जिनकी आँखों को मयस्सर नींद ना हो
ख्वाब उनके तोड़ने से क्या होगा

वो जो बैठे हैं समंदर से सहम कर
पतवार उनको सौंपने से क्या होगा

काँच का पुतला नहीं था तेरी महफ़िल में रक़ीब
इस क़दर टूटा हूँ मै, मुझे जोड़ने से क्या होगा।

छोड़ तनहा हाथ मेरा चल दिए तुम
अब भला मुझे ढूंढने से क्या होगा

हो चले रुख़सत तुम्हारे इस जहाँ से
अब निगाहें फेरने से क्या होगा

28 दिसंबर 2010

एक बार फिर से जी लें

आओ हम
अपने बीच फैले रास्तों को
कुछ और समेट लें
कुछ तहें लगा के
कुछ सिलवटों को मिटा के
दूरियां
जो हममे-तुममे बचीं हैं
मिटा लें
सर्द ठंडी हवाओं के थपेड़ों ने
जिन रिश्तों की गर्माहट को
बर्फ कर रखा है
ओस की नमीं ने
जिन्हें नम कर रखा है
उन रिश्तों को
एक बार फिर से
गुनगुनी धूप में पका लें
कुछ लम्हे चुरा कर
इन्हें सजा लें
आओ हम
एक बार फिर से जी लें

23 जुलाई 2010

कुछ यूँ ही.......

हर बार मुहब्बत का मेरी मुझसे सबूत माँगा है
क्या कहें? कैसे कहें कि जीने कि वजह क्या है

वह रहनुमा जिसने मुझे पंख दिए परवाज़ को,
उसी रहबर ने मेरे पाँव जकड़ रखे थे!!

मिजाज़ उनके मौसम की तरह बदलते रहे,
और हम यहाँ मूंछों पे तेल मलते रहे!!

27 जनवरी 2009

जज़्बात मेरे......


ख्वाबों को तितलियों की दुहाई न दो
आँखों से मेरी नींद की रिश्ते बिगड़ गए

आप खुशनसीब हैं जो ज़िन्दगी के मालिक हैं
उनसे पूछिए जिन्हें मौत ने भी न पूछा

आज का दिन मेरी ईद का है दिन
देख तेरे लबों पर तबस्सुम मचल उठा

यह रात और दूर तक बिखरी सी चांदनी
साहिल पे गूंजती हुई, मचलती सी रागिनी
हम सोचते ही रह गए, दामन तो थाम लें
उस महज़बीं के नाम का मदमस्त जाम लें

बन कर हँसी मेरे होठों से लिपट जाते
एक ही तो हसरत है जो दिल में बसी है

जब भी कहीं क़त्ल की दास्ताँ बयां हुई
होठों ने ख़ुद-बा-ख़ुद तेरा नाम ले लिया

नफरत से मुझे आप ने देखा नहीं कभी
मोहब्बत से मेरा नाम भी पुकारा नहीं कभी

तशना-लब हूँ मै कोई आज मुझे जाम तो दो
अपनी नज़रों से छलकता कोई पैगाम तो दो
मेरे अश्कों को कोई और नया नाम न दो
शबे फुरक़त है, फुरक़त की कोई शाम तो दो

हंसने की तमन्ना की इस दिल ने जब कभी
जिना-ए-लब ने तबस्सुम भी आकर छीन लिया
अफ़सोस दिलों का क़त्ल हुआ है जब कभी
बेक़सूर आखों से लहू बहता रहा है बूँद-बूँद

हर आहट पर तेरे आने का गुमाँ हुआ
नज़र उठी तो चाँद को हँसते देखा

10 जनवरी 2009

मुझे दर्द दे इतना.....

मुझे दर्द दे इतना की मिटा सकूँ किसी का दर्द
ख़ुद के अश्कों पर हंस सकूँ पोंछ कर ग़मों की गर्द
मुझे दर्द दे इतना......

नहीं साहिल की तमन्ना, नहीं तूफान का ग़म
ख़ुद ही बन कर दर्द-ए-जिगर, बता सकूँ दर्दों का ग़म
होठों को न हंसने की क़सम दे कर मुस्कुरा दूँ?
कितना बड़ा है फरेब, कितना सर्द है दिल
मुझे दर्द दे इतना.....

नहीं तबस्सुम की तमन्ना, नहीं ग़मों का ग़म
लुटा दूँ जान, मिट सके जो किसी का ग़म
दिल की जलन से ऐ 'धीर', अपने अरमानों को जला दूँ?
कितना बड़ा है फरेब, कितना सर्द है दिल
मुझे दर्द दे इतना.....

4 जनवरी 2009

दिल मेरा

जल रहा है दिल मेरा ग़म-ए-जुदाई की आग में

लिख रहा हूँ यह ग़ज़ल मैं, तुझको तेरी याद में

ठहरता नहीं है दिल पहलू में मेरे

आजा, अब आ भी जा यारब,

कहाँ वह चैन, वह सकूँ कहाँ है?

तू तो आया है बा-मुश्किल ख्याल में

लिख रहा हूँ...........

दिल लगाना इतना आसाँ नही है

तुने इसको समझा है जितना

हाय रे हमसफ़र मेरे

तू तो इतना नादाँ नहीं है

रहम तो आए तुझे इस हाल में

लिख रहा हूँ...................

चाहे न समझो दिल की लगी को

रहम तो करना इतना तुम मुझ पर

तुरबत पर मेरी ऐ 'धीर' आकर

चश्म-ए-तर से कुछ गुल बिछाना

तुम तो आबाद रहो वीराने में

लिख रहा हूँ...............

26 दिसंबर 2008

अजनबी

एक अजनबी

जाना पहचाना-सा

अपना-सा लगता है

नहीं लगता है - बेगाना-सा

नहीं करता बात - दीवानों-सी

आसमान से चाँद-तारे तोड़ने की

या उफनती लहरों को

ओढ़नी बनाने की

पाँव रहते हैं ज़मीन पर

वह बात करता है

भावनाओं की/ संवेदनाओं की

चाय, काफ़ी, महंगाई की

क्रिकेट, पे-कमीशन और

मुंबई के आतताई की

नेता-अभिनेता, माफिया

सभी उसको प्रभावित करते हैं

सर्द हवा के थपेड़े

उसे कुछ और समेट देते हैं

वह अजनबी

बहुत आम है

ख़ास कभी-कभी ही होता ही

तब-

जब भरनी होती है बच्चों की फीस

या पत्नी को लेनी होती है कोई ट्रीट

महीने के आखिरी दिन

और आम-चुनाव का दिन

तभी-

वह अजनबी-

अपना-सा लगता है

जाना पहचाना-सा लगता है

मासूम/ प्यारा-सा लगता है

वह अजनबी !

6 दिसंबर 2008

पत्थर

हमने जो पत्थर तराशे
नींव में सब सो गए
मील के पत्थर शहर की
भीड़ में सब खो गए
अब किसे आवाज़ दें
जब हर तरफ दीवार है
शब्द हैं खामोश
इशारे भी यहाँ लाचार हैं
धूप रिश्तों की बची जो
आओ उसमें बैठ लें
उम्र की छोड़ो यहाँ पर
ज़िन्दगी व्यापार है

16 नवंबर 2008

….ज़रूरी तो नहीं

हर सीप में मिल जाए मोती
यह ज़रूरी तो नहीं
हर शख्स में मिल जाए इन्सां
यह ज़रूरी तो नहीं
धूप के साए में तिनकों से बना हैं आशियाँ
चाँद की हो चाँदनी
यह ज़रूरी तो नहीं

बेसबब हंसना पड़ेगा
यह ज़रूरी तो नहीं
आँख भर आए तो रोएँ
यह ज़रूरी तो नहीं
हिचकियाँ आएँ अगर तो आपका ही नाम लें
मय में इतना भी नशा हो
यह ज़रूरी तो नहीं

जंग-ए-मैदां में अदावत
यह ज़रूरी तो नहीं
साथ हो शमशीर, चेतक
यह ज़रूरी तो नहीं
हौसला रखो तो मंजिल ख़ुद-बा-ख़ुद मिल जायेगी
आग का दरिया हो मुश्किल
यह ज़रूरी तो नहीं

9 नवंबर 2008

धुंए के अस्तित्व

क्यों आपकी आखों से?
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?
शनैः-शनैः-----
गाढ़ी होती धुंए की परतें!
दम घोंटती धुंए की चादर!!
क्यों आपकी आखों से?
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?

सड़कों पर दौड़ती सीटियाँ;
मकानों से झांकती वीरानियाँ;
.......किसी से अनजाने में ही
छलक पड़ती हैं-
शमशानों की खामोशियाँ!
किसके लिए-
यह कष्ट कर रही हैं?
किसके लिए -
यह त्याग कर रही हैं?
[शायद -
सम्पूर्ण मानव जाति के
हित में / व्रत में।
क्योंकि इंसान ही को प्रेम है-
वीरानगी से]
क्या यह ग्लोब के टुकडों की
भूखी हैं?
मेरा लहू बिकाऊ है।
आप क्यों नहीं खरीद लेते?
इन्हें मेरा लहू पिलाईये / अर्पित कीजिये
इसी के तो इन्हें प्यास है - आस है;
मेरा मांस -
उनके आगे फेंकिये / भक्षण कराइए -
इसी के वह भूखे हैं।
लेकिन-
क्यों आपकी आखों से?
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?

सूखे होठों पर खेलती हँसी;
ज़िन्दगी मौत से जूझती-सी कहीं;
साँस लेते ही अचानक-
.......कसमसाने लगी
मौत फिर से कहीं।
किसने कहा है-
खून सारा ही पी लो?
किसने कहा है-
मांस सारा ही खा लो?
न कोई अब भूख से त्रस्त है।
न रहेगा।
न अब कोई कमज़ोर है।
न रहेगा। क्योंकि -
दूध की सरिता प्रवाहशील है?
दुग्ध-समाधि क्यों नहीं ले लेते??
[बाढ़ की-
अतुलनीय जलराशि में हुई
जल-समाधि की भाँति। ]
क्यों नहीं-
बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं?
देखते नहीं-
कितनी सुविधा है!
राम-राज्य है!!
स्वराज्य है!!!
अहिंसा-वाद है!!!!
और तो और
समाजवाद का (मामूली सा) बोझ/ शायद है-
[कल ही-
उसमें दबकर/ उस
दुर्बल/निर्बल प्रजा की
मौत हो गयी है
जिसकी झुकी पीठ पर। इस-
समाजवाद का ढोंग
लदा था। ]
बोझ है तो क्या?
है तो समाजवाद ही।
लेकिन-क्यों?
आपकी आखों से-
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?

6 नवंबर 2008

ग़ज़ल


तुम्हे सुर्ख रंग ही चाहिए, मेरे दिल का रंग ले लो
तुम्हे खेल कोई चाहिए, मेरे दिल से आज खेलो

हर हाल में रहा हूँ, ज़िन्दा रहूँगा यूँ ही
यहाँ राख ही रही है, यहाँ राख ही रहेगी
नहीं खौफ़ है क़हर का, शोले मिलें या शबनम
ग़र तुम्हे शराब चाहिए, अश्कों को मेरे पी लो
तुम्हे सुर्ख रंग ही चाहिए, मेरे दिल का रंग ले लो....

मुझे ग़म नहीं की मैंने, काँटों का साथ माँगा
जब नींद में बशर थे, रातों को मै क्यों जागा
मेरे लहू से रोशन, ये हिज़ाब है सहर का
इस रंग को चुरा कर, होठों को तुम सज़ा लो
तुम्हे सुर्ख रंग ही चाहिए, मेरे दिल का रंग ले लो....

4 नवंबर 2008

पायल की झंकार

हाँ! मैंने सुनी है

मधुर

पायल की झंकार / तब
जब तुम मेरे सीने पर
अपने होठों से चुम्बन देकर
झंकृत कर देती थीं -
मेरा रोम-रोम
मेरा अंग-अंग
उसी क्षण बज उठती थी
तुम्हारे साँसों के स्वर में
मधुर
पायल की झंकार
हाँ! मैंने सुनी है।


जब मुझे जीवन घड़ियां
उदासी देने लगीं -
जब प्रातः स्वर्ण रश्मियाँ
बासी लगने लगीं
तब..........हाँ! तब ही -
तुमने मेरा नाम लेकर
मुझे पुकारा
संगीत के सुरों पर थपकी देकर
..............हाँ! तब ही
तुमने हाथों में गुलाल लेकर
आकाश में बिखेरा
अपने सिन्दूरी कपोलों की लाली देकर
उसी क्षण गूँज उठी थी
तुम्हारी चितवन के स्वर में
मधुर
पायल की झंकार
हाँ! मैंने सुनी है

1 नवंबर 2008

कुछ दूर तो चल कर देखें

मुमकिन है सफर हो आसाँ, कुछ दूर तो चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर

दो चार कदम हर रास्ता, पहले की तरह लगता है
शायद कुछ रास्ता बदले, कुछ दूर तो चल कर देखें
झूठा ही सही यह रिश्ता , मिलते ही रहें हम यूँ ही
हालात नहीं बदलेंगे, रिश्ते ही बदल कर देखें

सूरज की तपिश भी देखी, शोलों की कशिश भी देखी
अबके जो घटा ये छाये, बरसात में चल कर देखें
अब वक्त बचा है कितना, जो और लड़े दुनिया से
दुनिया की नसीहत पर भी, थोड़ा सा अमल कर देखें

मुमकिन है सफर हो आसाँ, कुछ दूर तो चल कर देखें

कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर देखें

27 अक्तूबर 2008

तमन्ना


जुगनुओं ने भी दीयों से कुछ माँगा है

रौशनी दे के जग जगमगा दें

ऐसा हौसला

एक ख्वाब न हो

हकीकत बने। क्योंकि

आज उतरे हैं लाखों

तारे ज़मीन पर!!


दीपावली पर्व की हजारों - हजारों शुभकामनायें


19 अक्तूबर 2008

सच

अगर आज की रात ठंडी है तो
ज़रूरी नहीं - कल सुबह
ठंडी ही हो।
सुबह सूरज के निकलते ही
तुम्हे एहसास होगा
गुनगुनाहट का -
एक प्रक्रिया के आरम्भ होने का -
जिसमे घुलने लगेगी
रात की ठंडक।
और फिर तुम्हे एहसास होगा
उष्णता क्या होती है
जलन किसे कहते हैं
तपन किसे कहते हैं

अगर आज की शाम शाँत है तो
ज़रूरी नहीं - रात के पहर
शाँत ही हों।
अखबार हाथ में आते ही
तुम्हे एहसास होगा -
वास्तविकता का
एक तूफ़ान के कहर ढाने का
जिसमे कई जिस्म छलनी हुए होंगे
आग की लपलपाती गोलियों से
और फिर -
तुम्हे एहसास होगा
सत्य क्या होता है
शाश्वत किसे कहते हैं
ताण्डव किसे कहते हैं

तब तुम्हारे माथे पर चमकेगा
स्वेद-कण! और तुम उसे -
बार-बार पोंछना चाहोगे।
तब तुम्हारे मस्तिष्क पर चमकेगा
खून का रंग! और तुम उसे -
बार-बार मिटाना चाहोगे.
लेकिन ऐसा होगा नहीं
तब तक ............जबतक
रात की तरह ही
सुबह ठंडी हो।
............शाम की तरह ही
रात के पहर शांत ही हों।

13 अक्तूबर 2008

मुक़र्रर

“तुमसा हँसीं दुनिया में नहीं और कोई
मुझसा दीवाना नहीं दुनिया में और कोई”

“हर शम्मा थरथराती है ढल जाने के पहले
ज़िन्दगी भी कसमसाती है मौत आने के पहले”

“मुझे किसी और की तमन्ना ना हो सकी
बस! तेरी तमन्ना के सहारे ही यह उम्र गुज़र गयी”

“हसरत-ए-दीदार लिए, बैठा था एक ज़माने से
सिलसिला-ए-उम्र टूटा, एक तेरे आने से”

“क्या ख़ूब तू क़ातिल है, जाने जिगर
देख, तेरे आने से कफन सुर्ख हो चला”

“मेरे आगोश की तमन्ना है, तेरे दिल को ऐ सनम
क्यों जुल्म ढाती हो, दिल-ऐ-मासूम पर”

“मौत से यह कह दो, मुझे खौफ़ नहीं कोई
अब ज़िन्दगी पर ज़िन्दगी का, पहरा लगा दिया”

“इतना हँसीं ख़याल था, तेरे आने का ऐ-सनम
इसी उम्मीद के सहारे, लेते रहे जनम”

“जब से तेरी आंखों से कई जाम पिए हैं
सीने में बस तमन्ना-ऐ-वस्ल लिए हैं”

“इस क़दर ना तोता-चश्म हो यारब
ख़ैर! यह भी तेरी कातिल अदा सही”

“हर अदा में नज़ाक़त है, अंदाज़ में नफासत
नज़रों में शरारत है, तेरी चाल में क़यामत
अदाएं तेरी मुझे वहशी ना बना दें
कब तक मैं सम्भालूँ, इस दिल में शराफत”

“इस दिल की हर धड़कन से भी महबूब हो तुम मुझे
बन्दा तो क्या ख़ुदा से भी अज़ीज़ हो तुम मुझे’

“तेरे क़दमों की क़सम खा कर कहता हूँ मै सनम
कहीं खाक़ में न मिल जाऊं मैं, खुदा की क़सम”

“कोई किसी दर्द की दवा कब तक किया करे
जब दर्द-ए-दवा ख़ुद ही, दर्द में बसा करे”

12 अक्तूबर 2008

पसीने की बूँद

आज सड़कों ने भी / शायद
ठण्ड से बचने का प्रयास किया है.
तभी तो कोहरे का शाल,
.............ओढ़ लिया है।
शायद बहुत अधिक गर्म है यह –
कोहरे का शाल।
तभी तो सड़क के माथे पर
पसीने की बूँद चमक उठी है।
यह कोहरे का शाल नहीं हो सकता।
क्यों की –
केवल शाल ही इतनी गर्मी दे?
सम्भव नहीं। तब?
हो सकता है यह कम्बल हो
क्यों की एक कम्बल ही
इतनी गर्मी देता है (गरीबों को) लेकिन
इतनी नहीं की
पसीने की बूँद चमक उठे।
हो सकता है यह बूँद गर्मी से न जन्मी हो
हर-पल बोझ उठाने से ही, यह
पसीने की बूँद चमक
उठी है। लेकिन
फिर भी वह –
वह कोहरे का शाल ही है
जिसे सड़कों ने ओढ़
रखा है।

[08.12.1981]

11 अक्तूबर 2008

अर्ज़ किया है......


“दिले पुरखूं से न खेलो अबस
चश्मे मैगूँ से पी है अभी-अभी”

“गिला तेरा नहीं जो तेरी नज़रे बदल गई
है कसूर ज़माने का जो हवा बदल गयी”

“दोशीजा लबों का हुस्न ही जज़्बे-हुस्ने यार है
मसायब हैं मेरी मस्ते-शबाब क़ातिल तेरी अदाएं”

“बुझती हुई शमाँ के मालिक से पूछिए
कितना? कहाँ-कहाँ पे हुआ दर्द रत भर”

“यह क्या? आपकी नज़रें बदल गयीं
अभी ख्वाब में ही आपने इकरार किया था”

“पहले की तुमसे कोई, शिकवा कर सकूँ
अपने लबों से तुम मुझे, ख़ुद ही पुकार लो”

“कुछ और तबस्सुम लबों पर बिखेरिये
फिर मौत से जूझते परवानो को देखिये”

“ऐसा नहीं की हमने, न हँसने की कसम खाई है
मजबूर थे, जब भी हँसे तेरे अश्कों की याद आयी है”

“होने लगी है रात जवाँ चराग़ बुझ चले
आओ जलायें दिल की यहाँ रौशनी तो हो”

“उफ़! यह अदाएं, यह तेरी शोख हँसीं
जला आशियाँ की सरशारियाँ मसायब मेरी”

“कुछ और पिला आ, की मुझे होश है अभी
मुश्किल है क्या, दो जाम उठा की मुझे होश है अभी”

“लो मैं चल दिया जुदा होकर ज़माने से
सकूं मिल जायेगा दिल को, तड़पता था ज़माने से”

“खुदा की कसम तुझे तो मौत भी न पूछेगी
जलायेगी तुझे, आ-आ कर तुझसे रूठेगी”

“मिला दी खाक में हस्ती, तेरा हो साथ अश्कों से
यही इक आह निकली है, मेरे टूटे हुए दिल से”

10 अक्तूबर 2008

खोज

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर

छलावा, छलता रहा मुझे –

ज्योति-पुंज का। दूर

और भी दूर होती गयी किरण

क्षीण। अति-क्षीण होते-होते

खो गयी बियाबन में प्रकाश की बूँद

शनैः -शनैः

माथे पर उभरे स्वेद बिन्दु

निढाल साँसों को

ढाल बनाकर – फिर भी

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर !

जलते मरुस्थल!

काँटों की बाढ़ !!

पथरीले जंगल!

महकते उपवन!!

कुछ भी नहीं रोक सके मेरी

जिजीविषा का उन्माद।

निस्तेज आंखों पर छाये अंधेरे

भूख से अकुलाती आंतें –

पीठ से चिपकता पेट। कांपती टांगें

सूखे जिस्म के सहारे

ढूँढता रहा हूँ बियाबान में रौशनी की किरण।

शनैः -शनैः

होठों पर उभरी शुष्क सलवटों पर

ढुलक कर आ गए

स्वेद कणों ने किया है

जीवन संचार –

वन भेदन को – फिर भी

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर !

[August 7th 1985]

9 अक्तूबर 2008

अर्ज़ है......

"आज फिर रोशन हुआ चराग मेरी महफिल में
जवाब ख़त का आया मुझे ज़िन्दगी देने"

"गुजरी बहार थी कभी दामन के रास्ते
अब तो यहाँ निशान ही बाकी बचे रहे"

"तेरे जज़्बात को हम क्या जानें ?
बनते रहे, बिगड़ते रहे आशियाने"

"तेरे सुर्खरू हयात की लाली जानम,
मेरे प्यार के मय की साकी जानम।
चम्पई रंग में लिपटा तेरा मरमरी शबाब,
किसी शायर के जज़्बात की परस्तिश जानम॥"

"याद है मुझको तेरे खिलवाड़ का मंजर,
नज़रों से मेरी नज़रों के तेरे प्यार का मंजर।
जला कर दिल में इक शम्मा अंधेरों को बुला लेना,
तेरे इकरार करने का हँसी एक ख्वाब का मंजर॥"

"करार तेरा क्यों कर मुझे बे-करार करता है?
तोता-चश्म होकर क्यों नज़र का वार करता है।"

"दिले शिकस्ता से पूछिए संगो-खिश्त का अंदाज़
किस तरह बिखरा क्रिचियों में आइना दिल का । "

8 अक्तूबर 2008

विभ्रम


व्यथित मन
प्यास में…
आस में…
चाह में किसी की
व्यर्थ ही बिता रहा है
वह पल / जो पल
क्षण-प्रतिक्षण जा रहा है;
शून्य में.

सुबह ही देखा था कहीं
आइना – टूटा हुआ.
बिखरा हुआ.
अपना ही चेहरा दिखा
सहमा हुआ.
बिगडा हुआ.
और फिर टूटा मन का विभ्रम –
मैं एक नहीं था
हर टुकड़े से मैं ही झाँक रहा था
ख़ुद अपने को आँक रहा था.
मेरे मुह में कसैला स्वाद
और भी कसैला होकर
एहसास दे गया अपनी
तीव्रता का.
तीक्ष्णता का.

क्योंकि-
अब आने वाला हर पथिक
दिखता है व्यथित. किंतु
सुबह की सफेदी में –
नहीं देखता
आइना .......टूटा हुआ अब तो
देखता है
मेरे मन का टूटा विभ्रम.
क्योंकि वह नहीं लेना चाहता
जोखिम –
अपने प्रतिबिम्ब को
टुकडों में बाटने का.
उसका –
व्यथित मन
प्यास में…
आस में…
चाह में किसी की !

7 अक्तूबर 2008

बहार आती ही नहीं

मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं
चश्म-ए-तर से बहारें नज़र आती ही नहीं
न जाने राज़ क्या है, दिले हालत क्या है?
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

बहारें आज तलक़ मुझसे ख़फा क्यों हैं
उनकी आंखों के सागर में नशा क्यों है
मुझे अब ज़िन्दगी जाने क्यों रुलाती ही नहीं
हंस पाता हूँ और अश्कों को बहा पता ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

महफिल-ए-गुल में, काँटों की ज़रूरत क्या है
उनकी साँसों में खुशबू की ज़रूरत क्या है
दीवानों को शम्मा, जाने क्यों जलाती ही नहीं
जाम लबरेज़ हैं, होठों से लगाता ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

किसी मायूस जिगर में, मुस्कराहट क्यों हैं
ख़्वाब की राख से उठता, धुवां क्यों हैं
‘धीर’ अब ज़िन्दगी कंधों से संभालती ही नहीं
आरजू मौत की करता हूँ, जो मिलती ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

(26.08.1979)